इस   काल  तो  पुरषार्थ  भी  एक  श्राप  है
अब  कहा  योगियों  में  भी बचा  ताप  है
धर्म  तो  बस  एक  स्वार्थ  साधक  जाप  है
आज  तो  सत्य  बोलना  भी  एक  घोर  पाप  है
सेवक  नहीं  हनुमान  की  मंथरा  का  राज  है
वर्तमान  का  द्वेष  देख  रावण  को  आता  लाज  है
युध्य   में  पोर्शुत्व  का  कहा  अब  कोई   काज   है
विश्वासघात  बन  चूका  विजय  का  स्वर  साज  है
हे  राम  कहा  हो  आप  क्यों  आपका  वनवास  है
क्या  नहीं  कोई  कृष्ण , असत्य  मीरा  का  विश्वास  है
मंदिर  बना  व्यापर , पातकी  को  भी  स्वर्ग  की  आस  है
धुलते  नहीं  पाप  अब , की  गंगा  में  बचा  कहा  स्वाश  है
ये  कैसी  संस्कृति  जहा  व्यसेयाओं  का  शम्मान  है
मुर्ख  चलता  साशन ,वंश  के  हाथ  देश  की  कमान  है
मामा  शकुनी  की  राजनीती ही चलती, उसका ही आज मान है
धिकार  है  हे  आर्य  तुझ  पे , कहा  तेरा  श्वाभिमान  है
Friday, October 15, 2010
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